Wednesday 17 June 2020

जिस जिन्दगी की बस मे मै चढ़ा ठीक से खड़े होने की जगह न थी एक पांव टिका था कहीं दूसरे की खबर न थी दर्द के टुकड़े पेवस्त थे नज़ारो मे मरहम दूर तक नदारद रहे नसीहतो कि मगर कमी न थी हम समझ कर भी खामोश रहे नासमझ शोर मचाते रहे जो रास्ते गुजारते रहे जिन्दगी मेरी पत्थर खंगालने मे उन्ही पर कुछ लोग अपने रहनुमा तराश कर आसानी से मंजिल नापते रहे हर कदम ,कायदा या रवायतो की दुहाई मिलती रही कुछ पाबंद रहे कुछ सहूलियत से पैबंद लगाते रहे छूटता नही सफर न बदले रास्ते इसी कारवां मे हम मकसद तलाशते रहे तरक्की शुदा ढांचे पर हावी रहे तरक्की पसंद आदतन इसे सवांरते रहे बस चल रही थी कुछ के नसीबो करम से उन्को ही पहले मौके पर वो उतारते रहे मंजिल न सफर की मजबूरी थी कोई हम तो हर बार कदमो को उनका वजूद देते रहे