Wednesday, 25 December 2024

समीक्षा: "विभाजन का दंश#" के विश्लेषण मे लेखक के अनुभव का रचना के रुपांतरण पर सोद्देश्य पूर्ण चर्चा का प्रयास कृति की रचनात्मक अन्विति को दृष्टिगत रखते हुए है रचना मन को बांध कर रखती है एवं मन आसानी से इसको भोगे हुए यथार्थ का मार्मिक चित्रण स्वीकार करता है इस समर्थन मे यह प्रश्न भी आ सकता है कि फिर यह एक आलेख, दस्तावेज या डाक्यूमेंट्री तो नही। परन्तु पुस्तक पठन के पश्चात स्पष्ट रुप मे यह स्वत: प्रमाणित हो जाता है कि यह विशुद्ध कलात्मक रचना है जिसने अपनी उत्पत्ति के अवयव यथार्थ से लिये हैं जिसमे की विचार रुपी बीज का विकास परिवेशगत मिट्टी व जल वायु द्वारा हुआ है। विभिन्न संस्कारों की खाद द्वारा पोषित रचना के वृक्ष पर सुन्दर फूल व फल वास्तविक है सौन्दर्य पूर्ण एवं कलात्मक हैं। यह रचना सृजन की वही अनदेखी प्रक्रिया से गुजरी है जो पीढ़ा से उत्पन्न होती है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार भी सत्य का संचरण गल्प मे सुगमता से होता है। नाटक मे कथा की विषयवस्तु, प्रसार व पात्र बहुत वास्तविक व अपने करीब लगते है।नाटक मंचन की दृष्टि से लिखा गया है व सर्वथा उपयुक्त है। यह रचनाकार की अभूतपूर्व सफलता दर्शाताहै। कथा विन्यास व परिवेश गत द्वंद, विभिन्न पात्रों के साथ समीपता प्रेम, करुणा,वितृष्णा एवं आक्रोश संचरित होता है। कथा सोचने पर बाध्य करती है और यही एक कलात्मक रचना का महान उद्देश्य होता है। भाषा का चयन समाज मे अंग्रेजी के सर्व व्यापी प्रभाव को भी दर्शाता है। रचना, पूर्व कालिक परिप्रेक्ष्य एवं अतीत से वर्तमान का सन्दर्भ भी जोड़ती है और भविष्य मे झांकने का सूत्र छोड़ जाती है। राजीव जिनराज
प्राक्कथन- अपने मित्र द्वारा लिखित पुस्तक "विभाजन का दंश# "हाथ मे लेकर उसको उलट पलट कर लेखक परिचय को सघन भाव से गूढ़ते रोमांच से ज्यादा गर्व का अनुभव हुआ । रोमांच, रचना मे सन्निहित शंकर दादा के जिये हुए यथार्थ मे पसरे अनुभव का, उसकी अनुभूति के सम्प्रेषण का, उनके साक्षात्कार का, सत्य अनावरण का, इत्यादि इत्यादि जो पुस्तक चर्चा पर उत्तरोत्तर प्रकट होगा। गर्व,अभिव्यक्ती के शक्ति दर्शन व उसके निकट साक्ष्य होने का।

Friday, 20 December 2024

'सीमाए' किसी मर्यादा मे तो रहे किसी का मर्यादा से पार हो जाना न हो सरोकार, गुरुत्व से,मूल्यों से,संस्कारो से निर्णय तो लेना है स्वयं की हवा बांध रखने का या कि वायुमंडल मे विलीन हो जाने का। कोई विचार मे ही रहे अवश्यमेव ही निकट होना अभीष्ट नही समय,साधनो के संकट से घिरा जीवन्त रहे निर्जीव का समीप होना भी वांछनीय नही स्पंदन का बंधन पर्याप्त है।

Wednesday, 4 December 2024

वो क्षण

जिन्दगी भी अजब धुआं धुआं न खाली न भरी हुई कुछ खालीपन भरना है कुछ भरे को उड़ेलना कुछ झाड़ कर खाली करना पर रुके नही चल पड़ना यूं जैसे ये लगे ठहरी हुई। जंगलों के परे कईं जंगल फैले हुए जबकि हर जंगल स्वयं मे पूर्ण फैलाव स्मृति को धुंधलाते पुकारते किस एक क्षण मे अहसास की जमीन गहरी हुई।

जीवन इक पल

जन्म होते ही शिशु का रुदन तत्पश्चात मुस्कान व अधरो को खोल खिलखिलाहट इस अन्तराल मे यह दैवीय अंतर्ज्ञान कि जीवन रुपी पीढ़ा की वहनियता का अन्य विकल्प नही। यह ज्ञान यात्रा का आरम्भ से अन्तिम श्वास तक मात्र एक पल का विस्तार। सम्पूर्ण जीवन को समाये।

आशा

तय है आंखो मे गुजरा कल नही आने वाले पल की चमक हो ऊपर दिमाग की मंजिल से उतर जब दिल की खिड़की से नजर उऊपर उठी बादलों के पीछे आसमान नीला था

Wednesday, 17 June 2020

जिस जिन्दगी की बस मे मै चढ़ा ठीक से खड़े होने की जगह न थी एक पांव टिका था कहीं दूसरे की खबर न थी दर्द के टुकड़े पेवस्त थे नज़ारो मे मरहम दूर तक नदारद रहे नसीहतो कि मगर कमी न थी हम समझ कर भी खामोश रहे नासमझ शोर मचाते रहे जो रास्ते गुजारते रहे जिन्दगी मेरी पत्थर खंगालने मे उन्ही पर कुछ लोग अपने रहनुमा तराश कर आसानी से मंजिल नापते रहे हर कदम ,कायदा या रवायतो की दुहाई मिलती रही कुछ पाबंद रहे कुछ सहूलियत से पैबंद लगाते रहे छूटता नही सफर न बदले रास्ते इसी कारवां मे हम मकसद तलाशते रहे तरक्की शुदा ढांचे पर हावी रहे तरक्की पसंद आदतन इसे सवांरते रहे बस चल रही थी कुछ के नसीबो करम से उन्को ही पहले मौके पर वो उतारते रहे मंजिल न सफर की मजबूरी थी कोई हम तो हर बार कदमो को उनका वजूद देते रहे