Saturday 9 July 2016

वो झील मे मचलती थी तंरगे,
अब सर्द गहराइ नुमायां होती है,
पत्तो की सरसराहट ओ खामोशी की गुनगुनाहट,
अब टूटे चमन मे सन्नाटे की कराहट,
वो पक्षियों का फड़फड़ाना वो कलरव वो चहचहाहट,
अब बेबस तड़पड़ाहट ओ बेज़ुबां की
अावाज़ होती है
वो गुलाबी शामें वो समंदर की आज़ादी
अब है रिसते बेमुकाम लहु की नाक़ामी
वो भीड़ की रवानी ओ सारे ज़हां का दर्प
अब है घिसटते क़दमोओ खुद की खुदी का दर्द
वो तेरे साथ का छूटना दुनिया की पर्त दर पर्त दिखा गया
पहले ज़िन्दगी के टुटने का डर था,
अब टुकड़ो मै जिन्दगी झलकती है

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