Sunday, 10 July 2016

छलियें बनाम साधारण जन:
एक गीत,


धूप को धूप न कहें
रुप को रुप न कहें
बेहयाइ को सुन्दर बना दे
चुल्लु को समंदर कहें

बन्दगी मतलब की करें
सच को कहने से डरें
आखं से अन्धे बने रहें
चलने वाले को ठोकर लगा दे

मानव मन ढूंढता है भरोसे
तोड़ने वाले है बहरुपिये
पूजा को न जाना आस्था न पहचाने
बना दिये पावन पथ सियासत के अड्डे

ये दुनिया रहे लहरों के भरोसे
जन न उभरे गृह चिन्ता से
विशाल शक्तिया सुप्त पड़ी
विकृत,स्वकेन्द्रित, मन हुकूमत करें

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