Saturday 9 July 2016

ट्रेन भागती हुइ रेल
सब कुछ पीछे छोड़ती ट्रेन
मैदान,अबूझे जंगल,हरियाली
पल पल पीछे छूटते पहाड़ ओ नदिया
घनी बस्तियां ओ विरल झोपड़िया
जीवन गति से भागती रेल
किसे समझूं किसे याद रखू
गुजर गये बहुत से स्टेशन ओ मुकाम
बहुत से अनजाने चेहरे बन गये पहचाने
कइ पहचाने गुम हुये, कुछ बने अनजाने
इस राह मे कोन कब क्या ओ कहां रहेगा
कोन तय करे ये कहानी
रेल मे है जीवन की रवानी
सबको लेकर,सबको पहुचांये
कभी समय पर कभी देर करे भटकाये
कभी हज़ारों मील तय करे जल्द
कभी छोटा सफर भी देर लगाये
जायके जिन्दगी के मिल जायें
कभी साधारण स्वाद को तरस जाये
बहुत गलतिया भी कोइ करे
दूसरे सबको कइ बार सहन कर जाये
एसा मेला जिन्दगी का जिन्दगी मे
जहां  कथायें  अनेक एक सगींत मे
मन विचलन ओ थिरता रखता जायें
अपने सीट को छोड़कर कोन जाये
स्टेशन आने पर सब यहीं एसा ही रह जाये
रहे अभी है खड़े,नही रिजर्व करा पाये
बैठेगें या गुजरेंगे यूही कौन जान पाये
कौन जान पाये
: कल कानपुर से लौटते वक्त ट्रेन मे.
यू ही🙌

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